उद्यमेनैव हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मृगाः॥
प्रयत्न करने से ही कार्य पूर्ण होते हैं, केवल इच्छा करने से नहीं, सोते हुए शेर के मुख में मृग स्वयं प्रवेश नहीं करते हैं।
केवल प्रभु को पाने का मनोरथ करने से कुछ नहीं हो सकता , हम क्या उद्धयम करते है ? प्रभु भाव एवं प्रेम के भूखे है। और हम प्रेम और भाव को छोड़कर अर्पण करने की चेस्टा करते है , जबकि श्री वल्लभ प्रभु ने खुद से लेकर जिसे भी हम अपना मानते है सबका समर्पण करने आज्ञा दी है। अर्पण और समर्पण में अंतर है। समर्पण हो गया तो खुद का कहने प्रभु के अलावा कुछ नहीं रहा। जब खुद का कुछ नहीं मानने का भाव जागृत हो जाता है तो अहम् मिट जाता है। मै , मेरा , मुझसे , मेरी और से की जगह प्रभु द्वारा प्रभु कृपा से , प्रभु इच्छा से प्रभु सुख हेतु हो रही सारी क्रिया एवं चेस्टा पूर्ण रूप से समर्पण का प्रतिबिम्ब बन जाती है । यही हमारा उद्धयम होना चाहिए जो श्री वल्लभ प्रभु आज्ञा किये है।
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