"श्रीराधिका स्तवनम्"
विगत दिनों में... हम ने... इस दिव्य-भाववाही स्तोत्र के... चार श्लोकों के रसास्वाद का आनंद लिया...। आइये... आज... पंचम श्लोक के अवगाहन से आप्लावित होते हैं...!!!
श्लोक :- 5
द्वाराधिपस्य च नायिके गुंजावने रमणप्रिये हंसात्मजातट शोभिते गुंजैश्च मण्डप साधिके।
गुंजामणीवरमौक्तिकैर्गोपालवक्ष विशोभिनि त्वद्भावभावित भूषणं नाथेन धार्यमिहास्ति तत्।।
श्रीराधिका भवतारिणी दूरीकरोतु ममापदम्। गोवर्द्धनोद्धरणेन साकं कुंज मण्डप शोभिनी।।
भावार्थ :--
(श्रीयमुनाजी के जल में स्थित निकुंज के द्वार के अधिपति) श्रीद्वारकेश प्रभु की नायिका... रमण जिसे प्रिय है ऐसीं आप ने... श्रीयमुनाजी के तट पर गुंजावन में... गुंजा की लताओं से अद्भुत निकुंज निर्मित कर... निज प्राणप्रेष्ठ को वहाँ पधरा कर...गुंजाफल-बहुमूल्य मणि एवं मोती के आभूषणों से..."शृंगारकल्पद्रुम" श्रीप्रभु का दिव्य शृंगार किया है...। भावात्मा श्रीप्रभु ने भी... उन आभूषणों को... आपके ही भाव से अंगीकार किये हैं...।
श्रीगोवर्धनधरण के संग कुंजमण्डप में शोभायमान...संसारसागर से पार उतारनेवालीं... हे श्रीराधिकाजी! मेरी आपत्ति दूर कीजिए...!!!)
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