By Vaishnav, For Vaishnav

Sunday, 21 August 2022

व्रज - भाद्रपद कृष्ण एकादशी

व्रज - भाद्रपद कृष्ण एकादशी
Monday, 22 August 2022

आज एकादशी तिथि है परंतु अजा एकादशी व्रत कल मंगलवार, 23 अगस्त 2022 को होगा.

श्रीमदभागवत में वर्णित महापापी अजामिल का सम्पूर्ण प्रसंग माहत्य सहित अजा एकादशी के अवसर पर विशेष

शुकदेवजी महाराज राजा परीक्षित से कहते हैं,कि हे प्रिय परीक्षित्! यह कथा परम गोपनीय—अत्यन्त रहस्यमय है। मलय पर्वत पर विराजमान भगवान् अगस्त्यजी ने श्रीहरि की पूजा करते समय मुझे यह सुनाया था,आप भी सुने,,,,,,

कान्यकुब्ज (कन्नौज) में एक ब्राम्हण रहता था। उसका नाम अजामिल था। यह अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था। शील, सदाचार और सद्गुणों का तो यह खजाना ही था। ब्रम्हचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ, मन्त्रवेत्ता और पवित्र भी था। इसने गुरु, संत-महात्माओं सबकी सेवा की थी। एक बार अपने पिता के आदेशानुसार वन में गया और वहाँ से फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घर के लिये लौटा। लौटते समय इसने देखा की एक व्यक्ति मदिरा पीकर किसी वेश्या के साथ विहार कर रहा है।

वेश्या भी शराब पीकर मतवाली हो रही है। अजामिल ने पाप किया नहीं केवल आँखों से देखा और काम के वश हो गया । अजामिल ने अपने मन को रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन नाकाम रहा। अब यह मन-ही-मन उसी वेश्या का चिन्तन करने लगा और अपने धर्म से विमुख हो गया ।

अजामिल सुन्दर-सुन्दर वस्त्र-आभूषण आदि वस्तुएँ, जिनसे वह प्रसन्न होती, ले आता। यहाँ तक कि इसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति देकर भी उसी कुलटा को रिझाया। यह ब्राम्हण उसी प्रकार की चेष्टा करता, जिससे वह वेश्या प्रसन्न हो।

इस वेश्या के चक्कर में इसने अपने कुलीन नवयुवती और विवाहिता पत्नी तक का परित्याग कर दिया और उस वैश्या के साथ रहने लगा। इसने बहुत दिनों तक वेश्या के मल-समान अपवित्र अन्न से अपना जीवन व्यतीत किया और अपना सारा जीवन ही पापमय कर लिया। यह कुबुद्धि न्याय से, अन्याय से जैसे भी जहाँ कहीं भी धन मिलता, वहीं से उठा लाता। उस वेश्या के बड़े कुटुम्ब का पालन करने में ही यह व्यस्त रहता। चोरी से, जुए से और धोखा-धड़ी से अपने परिवार का पेट पालता था।

एक बार कुछ संत इसके गांव में आये। गाँव के बाहर संतों ने कुछ लोगों से पूछा की भैया, किसी ब्राह्मण का घर बताइए हमें वहां पर रात गुजारनी है। इन लोगों ने संतों के साथ मजाक किया और कहा- संतों- हमारे गाँव में तो एक ही श्रेष्ठ ब्राह्मण है जिसका नाम है अजामिल। और इतना बड़ा भगवान का भक्त है की गाँव के अंदर नहीं रहता गाँव के बाहर ही रहता है।

अब संत जन अजामिल के घर पहुंचे और दरवाजा खटखटाया- भक्त अजामिल दरवाजा खोलो। जैसे ही अजामिल ने आज दरवाजा खोला तो संतों के दर्शन करते ही मानो आज अपने पुराने अच्छे कर्म उसे याद आ गए।

संतों ने कहा की भैया- रात बहुत हो गई है आप हमारे लिए भोजन और सोने का प्रबंध कीजिये।अजामिल ने सुंदर भोजन तैयार करवाया और संतो को करवाया। जब अजामिल ने संतों से सोने के लिए कहा तो संत कहते हैं भैया- हम प्रतिदिन सोने से पहले कीर्तन करते हैं। यदि आपको समस्या न हो तो हम कीर्तन करलें?

अजामिल ने कहा- आप ही का घर है महाराज! जो दिल में आये सो करो।

संतों ने सुंदर कीर्तन प्रारम्भ किया और उस कीर्तन में अजामिल बैठा। सारी रात कीर्तन चला और अजामिल की आँखों से खूब आसूं गिरे हैं। मानो आज आँखों से आंसू नहीं पाप धूल गए हैं। सारी रात भगवान का नाम लिया ।

जब सुबह हुई संत जन चलने लगे तो अजामिल ने कहा- महात्माओं, मुझे क्षमा कर दीजिये। मैं कोई भक्त वक्त नहीं हूँ। मैं तो एक मह पापी हूँ। मैं वैश्या के साथ रहता हूँ। और मुझे गाँव से बाहर निकाल दिया गया है। केवल आपकी सेवा के लिए मैंने आपको भोजन करवाया। नहीं तो मुझसे बड़ा पापी कोई नहीं है।

संतों ने कहा- अरे अजामिल! तूने ये बात हमें कल क्यों नहीं बताई, हम तेरे घर में रुकते ही नहीं।

अब तूने हमें आश्रय दिया है तो चिंता मत कर। ये बता तेरे घर में कितने बालक हैं। अजामिल ने बता दिया की महाराज 9 बच्चे हैं और अभी ये गर्भवती है।

संतों ने कहा की अबके जो तेरे संतान होंगी वो तेरे पुत्र होगा। और तू उसका नाम “नारायण” रखना। जा तेरा कल्याण हो जायेगा।

संत जन आशीर्वाद देकर चले गए। समय बिता उसके पुत्र हुआ। नाम रखा नारायण। अजामिल अपने नारायण पुत्र में बहुत आशक्त था। अजामिल ने अपना सम्पूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायण को सौंप दिया था। हर समय अजामिल कहता था- नारायण भोजन कर लो।

नारायण पानी पी लो। नारायण तुम्हारा खेलने का समय है तुम खेल लो। हर समय नारायण नारायण करता था।

इस तरह अट्ठासी वर्ष बीत गए। वह अतिशय मूढ़ हो गया था, उसे इस बात का पता ही न चला कि मृत्यु मेरे सिर पर आ पहुँची है ।

अब वह अपने पुत्र बालक नारायण के सम्बन्ध में ही सोचने-विचारने लगा। इतने में ही अजामिल ने देखा कि उसे ले जाने के लिये अत्यन्त भयावने तीन यमदूत आये हैं। उनके हाथों में फाँसी है, मुँह टेढ़े-टेढ़े हैं और शरीर के रोएँ खड़े हुए हैं । उस समय बालक नारायण वहाँ से कुछ दूरी पर खेल रहा था।

यमदूतों को देखकर अजामिल डर गया और अपने पुत्र को कहता हैं नारायण नारायण मेरी रक्षा करो नारायण मुझे बचाओ!

भगवान् के पार्षदों ने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान् नारायण का नाम ले रहा है, उनके नाम का कीर्तन कर रहा है; अतः वे बड़े वेग से झटपट वहाँ आ पहुँचे । उस समय यमराज के दूर दासीपति अजामिल के शरीर में से उसके सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे। विष्णु दूतों ने बलपूर्वक रोक दिया ।

उनके रोकने पर यमराज के दूतों ने उनसे कहा—‘अरे, धर्मराज की आज्ञा का निषेध करने वाले तुम लोग हो कौन ? तुम किसके दूत हो, कहाँ से आये हो और इसे ले जाने से हमें क्यों रोक रहे हो ?

जब यमदूतों ने इस प्रकार कहा, तब भगवान् नारायण के आज्ञाकारी पार्षदों ने हँसकर कहा—यमदूतों यदि तुम लोग सचमुच धर्मराज के आज्ञाकारी हो तो हमें धर्म का लक्षण और धर्म का तत्व सुनाओ । दण्ड का पात्र कौन है ?

यमदूतों ने कहा—वेदों ने जिन कर्मों का विधान किया है, वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है, वे अधर्म हैं। वेद स्वयं भगवान् के स्वरुप हैं। वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयं प्रकाश ज्ञान हैं—ऐसा हमने सुना है । पाप कर्म करने वाले सभी मनुष्य अपने-अपने कर्मों के अनुसार दण्डनीय होते हैं ।

भगवान् के पार्षदों ने कहा—यमदूतों! यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि धर्मज्ञों की सभा में अधर्म प्रवेश कर रह है, क्योंकि वहाँ निरपराध और अदण्डनीय व्यक्तियों को व्यर्थ ही दण्ड दिया जाता है । यमदूतों! इसने कोटि-कोटि जन्मों की पाप-राशि का पूरा-पूरा प्रायश्चित कर लिया है।

क्योंकि इसने विवश होकर ही सही, भगवान् के परम कल्याणमय (मोक्षप्रद) नाम का उच्चारण तो किया है । जिस समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय केवल उतने से ही इस पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया ।

चोर, शराबी, मित्रद्रोही, ब्रम्हघाती, गुरुपत्नीगामी, ऐसे लोगों का संसर्गी; स्त्री, राजा, पिता और गाय को मारने वाला, चाहे जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभी के लिये यही—इतना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित है कि भगवान् के नामों का उच्चारण किया जाय; क्योंकि भगवन्नामों के उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान् के गुण, लीला और स्वरुप में रम जाती है और स्वयं भगवान् की उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है ।

तुम लोग अजामिल को मत ले जाओ। इसने सारे पापों का प्रायश्चित कर लिया है, क्योंकि इसने मरते समय भगवान् के नाम का उच्चारण किया है।

इस प्रकार भगवान् के पार्षदों ने भागवत-धर्म का पूरा-पूरा निर्णय सुना दिया और अजामिल को यमदूतों के पाश से छुड़ाकर मृत्यु के मुख से बचा लिया भगवान् की महिमा सुनने से अजामिल के हृदय में शीघ्र ही भक्ति का उदय हो गया।

अब उसे अपने पापों को याद करके बड़ा पश्चाताप होने लगा । (अजामिल मन-ही-मन सोचने लगा—) ‘अरे, मैं कैसा इन्द्रियों का दास हूँ, मैंने एक दासी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करके अपना ब्राम्हणत्व नष्ट कर दिया। यह बड़े दुःख की बात है। धिक्कार है! मुझे बार-बार धिक्कार है, मैं संतों के द्वारा निन्दित हूँ, पापात्मा हूँ! मैंने अपने कुल में कलंक का टीका लगा दिया!

मेरे माँ-बाप बूढ़े और तपस्वी थे। मैंने उनका भी परित्याग कर दिया। ओह! मैं कितना कृतघ्न हूँ। मैं अब अवश्य ही अत्यन्त भयावने नरक में गिरूँगा, जिसमें गिरकर धर्मघाती पापात्मा कामी पुरुष अनेकों प्रकार की यमयातना भोगते हैं। कहाँ तो मैं महाकपटी, पापी, निर्लज्ज और ब्रम्हतेज को नष्ट करने वाला तथा कहाँ भगवान् का वह परम मंगलमय ‘नारायण’ नाम (सचमुच मैं तो कृतार्थ हो गया)।

अब मैं अपने मन, इन्द्रिय और प्राणों को वश में करके ऐसा प्रयत्न करूँगा कि फिर अपने को घोर अन्धकारमय नरक में न डालूँ । मैंने यमदूतों के डर अपने पुत्र “नारायण” को पुकारा। और भगवान के पार्षद प्रकट हो गए यदि मैं वास्तव में नारायण को पुकारता तो क्या आज श्री नारायण मेरे सामने प्रकट नहीं हो जाते?

अब अजामिल के चित्त में संसार के प्रति तीव्र वैराग्य हो गया। वे सबसे सम्बन्ध और मोह को छोड़कर हरिद्वार चले गये। उस देवस्थान में जाकर वे भगवान् के मन्दिर में आसन से बैठ गये और उन्होंने योग मार्ग का आश्रय लेकर अपनी सारी इन्द्रियों को विषयों से हटाकर मन में लीन कर लिया और मन को बुद्धि में मिला दिया।

इसके बाद आत्मचिन्तन के द्वारा उन्होंने बुद्धि को विषयों से पृथक् कर लिया तथा भगवान् के धाम अनुभव स्वरुप परब्रम्ह में जोड़ दिया । इस प्रकार जब अजामिल की बुद्धि त्रिगुणमयी प्रकृति से ऊपर उठकर भगवान् के स्वरुप में स्थित हो गयी, तब उन्होंने देखा कि उनके सामने वे ही चारों पार्षद, जिन्हें उन्होंने पहले देखा था, खड़े हैं।

अजामिल ने सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया। उनका दर्शन पाने के बाद उन्होंने उस तीर्थस्थान में गंगा के तट पर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान् के पार्षदों का स्वरुप प्राप्त कर दिया ।

अजामिल भगवान् के पार्षदों के साथ स्वर्णमय विमान पर आरूढ़ होकर आकाश मार्ग से भगवान् लक्ष्मीपति के निवास स्थान वैकुण्ठ को चले गये।

शुकदेव जी महाराज कहते हैं परीक्षित्! यह इतिहास अत्यन्त गोपनीय और समस्त पापों का नाश करने वाला है। जो पुरुष श्रद्धा और भक्ति के साथ इसका श्रवण-कीर्तन करता है, वह नरक में कही नहीं जाता। यमराज के दूत तो आँख उठाकर उसकी ओर देख तक नहीं सकते।

उस पुरुष का जीवन चाहे पापमय ही क्यों न रहा हो, वैकुण्ठलोक में उसकी पूजा होती है । परीक्षित्! देखो-अजामिल-जैसे पापी ने मृत्यु के समय पुत्र के बहाने भगवान् नाम का उच्चारण किया! उसे भी वैकुण्ठ की प्राप्ति हो गयी! फिर जो लोग श्रद्धा के साथ भगवन्नाम का उच्चारण करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है ।

यमदूत और यमराज का संवाद

जब भगवान के पार्षदों ने यमदूतों से अजामिल को छुड़ाया तो यमदूत यमराज के पास पहुंचे और कहते हैं-

प्रभो! संसार के जीव तीन प्रकार के कर्म करते हैं—पाप, पुण्य अथवा दोनों से मिश्रित। इन जीवों को उन कर्मों का फल देने वाले शासक संसार में कितने हैं ?

हम तो ऐसा समझते हैं कि अकेले आप ही समस्त प्राणियों और उनके स्वामियों के भी अधीश्वर हैं। आप ही मनुष्यों के पाप और पुण्य के निर्णायक, दण्डदाता और शासक हैं।

यमराज ने कहा—दूतों! मेरे अतिरिक्त एक और ही चराचर जगत् के स्वामी हैं। उन्हीं में यह सम्पूर्ण जगत् सूत में वस्त्र के समान ओत-प्रोत है। उन्हीं के अंश, ब्रम्हा, विष्णु और शंकर इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करते हैं। उन्हीं ने इस सारे जगत् को नथे हुए बैल के समान अपने अधीन कर रखा है।

मेरे प्यारे दूतों! जैसे किसान अपने बैलों को पहले छोटी-छोटी रस्सियों में बाँधकर फिर उन रस्सियों को एक बड़ी आड़ी रस्सी में बाँध देते हैं, वैसे ही जगदीश्वर भगवान् ने भी ब्रम्हाणादि वर्ण और ब्रम्हचर्य आदि आश्रम रूप छोटी-छोटी नाम की रस्सियों में बाँधकर फिर सब नामों को वेदवाणी रूप बड़ी रस्सी में बाँध रखा है। इस प्रकार सारे जीव नाम एवं कर्म रूप बन्धन में बँधे हुए भयभीत होकर उन्हें ही अपना सर्वस्व भेंट कर रहे हैं।

सभी भगवान के आधीन हैं इनमें मैं, इन्द्र, निर्ऋति, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि, शंकर, वायु, सूर्य, ब्रम्हा, बारहों आदित्य, विश्वेदेवता, आठों वसु, साध्य, उनचास मरुत्, सिद्ध, ग्यारहों रूद्र, रजोगुण एवं तमोगुण से रहित भृगु आदि प्रजापति और बड़े-बड़े देवता।

भगवान् के नामोच्चारण की महिमा तो देखो, अजामिल-जैसा पापी भी एक बार नामोच्चारण करने मात्र से मृत्युपाश से छुटकारा पा गया। भगवान् के गुण, लीला और नामों का भलीभाँति कीर्तन मनुष्यों के पापों का सर्वथा विनाश कर दे, यह कोई उसका बहुत बड़ा फल नहीं है, क्योंकि अत्यन्त पापी अजामिल ने मरने के समय चंचल चित्त से अपने पुत्र का नाम ‘नारायण’ उच्चारण किया।

उस नामाभासमात्र से ही उसके सारे पाप तो क्षीण हो ही गये, मुक्ति की प्राप्ति भी हो गयी। बड़े-बड़े विद्वानों की बुद्धि कभी भगवान् की माया से मोहित हो जाती है। वे कर्मों के मीठे-मीठे फलों का वर्णन करने वाली अर्थवाद रूपिणी वेदवाणी में ही मोहित हो जाते हैं और यज्ञ-यागादि बड़े-बड़े कर्मों में ही संलग्न रहते हैं तथा इस सुगमातिसुगम भगवन्नाम की महिमा को नहीं जानते।

यह कितने खेद की बात है। प्रिय दूतों! बुद्धिमान् पुरुष ऐसा विचार कर भगवान् अनन्त में ही सम्पूर्ण अन्तःकरण से अपना भक्तिभाव स्थापित करते हैं। वे मेरे दण्ड के पात्र नहीं हैं। पहली बात तो यह है कि वे पाप करते ही नहीं, लेकिन यदि कदाचित् संयोगवश कोई पाप बन भी जाय, तो उसे भगवान् का गुणगान तत्काल नष्ट कर देता है।

जिनकी जीभ भगवान् के गुणों और नामों का उच्चारण नहीं करती, जिनका चित्त उनके चरणारविन्दों का चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में नहीं झुकता, उन भगवत्सेवा-विमुख पापियों को ही मेरे पास लाया करो।

जब यमदूतों ने अपने स्वामी धर्मराज के मुख से इस प्रकार भगवान् की महिमा सुनी और उसका स्मरण किया, तब उनके आश्चर्य की सीमा न रही। तभी से वे धर्मराज की बात पर विश्वास करके अपने नाश की आशंका से भगवान् के आश्रित भक्तों के पास नहीं जाते और तो क्या, वे उनकी ओर आँख उठाकर देखने में भी डरते हैं।

प्रिय परीक्षित्! यह इतिहास परम गोपनीय है।

माहत्य

विशेष- प्रभु ने यह अपना अनुग्रह प्रकट करने के लिए किया इसी लिए कहते हे की प्रभु कर्तुम अकर्तुम अन्यथाकर्तुम सर्वसमर्थ है।आज की एकादशी ऊसी अजामिल के नाम से अजा एकादशी कहलाती है.
ये अध्याय से यह सीख मिलती है कि  हम सब पुष्टि वैष्णवो को ठाकुरजी की सेवा और नाम किर्तन सतत अंतिम श्र्वास तक करना है , कितनी भी विषम परिस्थिति हमारे जीवन में क्यों न आए ? 
ठाकुरजी की सेवा और ठाकुरजी से स्नेह यही पुष्टि जीव का लक्ष्य होना चाहिए ।
मनुष्य चाहे जितना बड़ा पापी हो , चाहे जितना नि:साधन हो ; यदि सच्चे ह्रदय से एकबार भी प्रभु की शरण स्वीकार ले तो प्रभु उसको " स्वजन " मान लते हैं . इसीलिए महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी  ने "कृष्णाश्रयस्तोत्र" में कहा हैं :-

"पापसक्तस्य दीनस्य कृष्ण एव गतिर्मम" 

भावार्थ :- सुखी हो या दु:खी , पापी हो या निष्पाप , धनवान हो या निर्धन , साधन-सम्पन्न हो या नि:साधन ; सभी को श्रीकृष्ण की शरण में ही जाना चाहिए .
          सब देवें के देव , सर्वशक्तिमान , सर्वकारण ऐसे श्रीकृष्ण को छोड़ कर अन्य किसी की शरण में क्यों जाएँ ?
      इसीलिए पुष्टिमार्ग श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति का मार्ग 
दिखाता/सिखाता है .

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