By Vaishnav, For Vaishnav

Friday, 28 August 2020

दानलीला प्रकथन

दानलीला प्रकथन

दानलीला मानलीला और रसलीला -यह सब लीलाएँ करनेका श्रीपुष्टि पुरुशोत्तम का एक ही तात्पर्य है कि ईस लीला द्वारा,जीवोकी अपनेमें आसक्ति करानी। 

भजते तादशीः क्रीडा याः श्रुत्वा तत्परो भवते ! आप ऐसी लीलाएँ करते हो,कि जिसको सुनने से जीव भगवदासक्त वने। 

श्री महाप्रभुजी ईसको निरोध कहते है। लीलाओकी भावना  करके तनुवित्तजा सेवा करें,तो चित्त सहज रीते भगवान में निरुध्ध हो जाय। 

सहस्त्रावधि ग्रंथो के प्रणेता, महानुंभाव श्रीहरिरायजी- रसिक
छापसे असंख्य पद की व्रजभाषा में रचनाएँ की है ।
दानलीला आपश्रीकी बहुत प्रसिध्ध कृति है।
श्री गुसाईजी कृत शृंगाररसमंडन में- दानलीला नामक-संस्कृत काव्यग्रंथ पर से,श्री हरिरायजी ए बडी दान लीला ग्रंथ की रचना की है। राजनगरके श्री व्रजराज महाराजश्री ए भी,श्री हरिरायजी कृत दानलीला उपर संस्कृत में टीका लिखि है आपश्री ए " दान " का लक्षण बताया की" दानं नाम विक्रेयः पदार्थे षु नितिमार्गे ण  ग्राह्यो राजभागः"। गुजराती में  दाण,वेरो के जकात से पहचाने जाते है।

व्रजमें श्रीनंदरायजी का राज है ईसलिये श्रीनंदराजकुमार माल पर दान मांग सकते है।
विद्वान नि. ली. पूज्यपाद गो. श्रीदिक्षितजी महाराजश्री अपने वचनामृत में आज्ञा करते है कीः-

जलयात्रासे "सुधर नेह भर आई पदोक्त भक्तिगान से निरोधबीज स्थापित होता है।
रथयात्रासे, वो बीज अंकुरित होता है और जन्माष्टमी से" वृध्धि " होता है। दानलीला से "पुष्पित'" होता है। होरी-धमार में फलित होता है।

भक्त और भगवन्निरोध की साधना... ये ही दानलीलाश्री महाप्रभुजी भी आज्ञा करते हे की  कृष्णाधीना तु मर्यादाः स्वाधीना पुष्टिरूच्चते दानलीला-पुष्टिलीला है और व्रजभक्तन के आधीन है।
रसो वै सः-यह उपनिशद्  वाक्यमें निरुपण किया अनुसार,  रसात्मक आलंबन विभाव श्रीराधाजी है और उद्दीपन विभाव " श्री चंन्द्रावलीजी है। जिसको अवलंबि जो रसोत्पत्ति हो, वो आलंबन-विभाव और जे रसका उद्दीपन-उत्तेजित करें,उनको उद्दीपन विभाव कहते है वन-उपवन-पशु-पंखी चंद्रप्रकाश-आदि ऊद्दीपन है

श्री राधिकाजी ठाकोरजी के वाम बाजु और श्रीचंद्रावलीजी, श्रीठाकोरजी के दक्षिण बाजु,बिराजते है।
श्री चंद्रावलीजी,युगलस्वरुप के प्रेमकी मूर्ति और लीलामें,विषेश रसपोषकताके,अर्थात, परकियात्व सुखका कारण है। 

दानलीला का प्रारभ , भाद्रपद -शुकलपक्ष ११ से होता है और अमास पर्यंत चले है।

दूध ,श्रीस्वामीनीजी का अधरामृत है और दहीं, श्रीचंद्रावलीजी का अधरामृत है।   ईसलिये दानएकादशी के दिन, राजभोग-दानमें-दहीं घराते है 
दानलीला में श्रीचंद्रावलीजी की मुख्यता है

श्रीहरिरायजी-कृत दानलीला में ग्वालिनी के वचन मोहन जान दे यह सम पर नागरी दान दे यह सम पर अटकते है
गोरस शब्द में श्र्लेष है। गोरस - दूघ -दहीं तो सही है, लेकिन गो-ईन्द्रीयां उनका रस श्रीठाकोरजी मांगते है।
यह लीला साव निर्दोषलीला समजनेकी है। क्यांकि यह लीला करने वाले में देह-देही विभाग - देह अलग और आत्मा अलग-ऐसा नह़ी लेकिन सब एक ही है

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