हमने सुना है की दान के दिनों में दान लीला अवश्य बोलनी चाहिए । तो यह दान लीला क्या है ?
ओह ! दानलीला .....................
अपने यहां तीन-चार दान लीला प्रगट हुई है । श्री गुसांईंजी रचित ( संस्कृत में है ) , श्री हरिरायजी रचित , सुरदासजी रचित , कुंभनदासजी रचित ................
जैसे दर्शन हुए वैसी ही लीला प्रगट की वो दानलीला .......
दानलीला का स्मरण होते हैं हमारे श्री नटखट प्रभु की याद आ जाती हैं । श्री ठाकुरजी ने जो वृज में गोप- गोपीजनो के साथ गोरस की लीला करी वोही दान लीला । दानलीला में श्री ठाकुरजी ओर गोपीजनो के साथ प्रेम का मीठा झगड़ा का अरसपरस संवाद है । क्या वो गोपीजनो का भाव था की श्री ठाकुरजी के साथ मीठा झगड़ा कर सके?
जब भी दानलीला बोले या सुने तब अपने श्री सेव्यस्वरुप का स्मरण अवश्य करना चाहिए । अपने श्री सेव्यस्वरुप को भी विनंती करनी चाहिए की गोपीजनो के पास जैसे हठ करके दान लीया ऐसी ही कृपा हम पे करो । क्योंकि वो वृज में बिराजमान श्री ठाकुरजी ओर अपने घरमें बिराजमान श्री सेव्यस्वरुप दोनों एक ही है । फर्क हमारे प्रेम भाव ओर गोपीजनो के प्रेम भाव में है ।
दानलीला अवश्य बोलनी ही चाहिए। श्री हरिरायजी महाप्रभु को कितने सुंदर दर्शन हुए थे । जो हरिरायजी रचित दानलीला बोलो तब एकबार आंखें बंद करके अपने श्री सेव्यस्वरुप को याद करे ओर विनंती करे की है प्रभु आपने वृज में तो मांग-मांगकर आरोगे थे तो फिर हमारे पास, हमारे यहां क्युं नहीं ?
इतना जरुर याद रखो की बिनती आपकी ओर कृपा श्री सेव्यस्वरुप की ..............
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