कान जगाई
अन्नकूट महोत्सव के लिए चावल पधराना, श्रीनवनीतप्रियाजी को शिरारहित पान की बीड़ी अरोगाना, गायों का पूजन, कानजगाई इत्यादि महोत्सव की सम्पूर्ण सेवा का निर्वाहन पूज्य श्री तिलकायत महाराजश्री व चि श्री विशाल बावाश्री करते हैं परंतु इस वर्ष महामारी प्रकोप के चलते महाराजश्री मुम्बई में ही विराजित हैं अतः महोत्सव की सम्पूर्ण सेवा सम्भवतया श्री मुखियाजी के द्वारा ही सम्पन्न होगी. यद्यपि आलेख में हुज़ूरश्री एवं बावाश्री का ही उल्लेख है क्योंकि भले ही इस विकट परिस्तिथि में वे शशरीर उपस्तिथ ना हो लेकिन वे मानसिक रूप से यही हैं.)
श्री नवनीतप्रियाजी में सायं कानजगाई के व शयन समय रतनचौक में हटड़ी के दर्शन होते हैं.
कानजगाई - संध्या समय गौशाला से इतनी गायें लायी जाती है कि गोवर्धन पूजा का चौक भर जाए. गायें मोरपंख, गले में घंटियों और पैरों में घुंघरूओं से सुशोभित व श्रृंगारित होती हैं. उनके पीठ पर मेहंदी कुंकुम के छापे व सुन्दर आकृतियाँ बनी होती है.
ग्वाल-बाल भी सुन्दर वस्त्रों में गायों को रिझाते, खेलाते हैं. गायें उनके पीछे दौड़ती हैं जिससे प्रभुभक्त, नगरवासी और वैष्णव आनन्द लेते हैं.
गौधूली वेला में शयन समय कानजगाई होती है. श्री नवनीतप्रियाजी के मंदिर से लेकर सूरजपोल की सभी सीढियों तक विभिन्न रंगों की चलनियों से रंगोली छांटी जाती है.
श्री नवनीतप्रियाजी शयन भोग आरोग कर चांदी की खुली सुखपाल में विराजित हो कीर्तन की मधुर स्वरलहरियों के मध्य गोवर्धन पूजा के चौक में सूरजपोल की सीढ़ियों पर एक चौकी पर बिराजते हैं.
प्रभु को विशेष रूप से दूधघर में सिद्ध केशर मिश्रित दूध की चपटिया (मटकी) का अरोगायी जाती है.
चिरंजीव श्री विशालबावा कानजगाई के दौरान प्रभु को शिरारहित पान की बीड़ी अरोगाते हैं.
श्रीजी व श्री नवनीतप्रियाजी के कीर्तनिया कीर्तन करते हैं व झालर, घंटा बजाये जाते हैं.
पूज्य श्री तिलकायत महाराज गायों का पूजन कर, तिलक-अक्षत कर लड्डू का प्रशाद खिलाते हैं. गौशाला के बड़े ग्वाल को भी प्रशाद दिया जाता है.
तत्पश्चात पूज्य श्री तिलकायत नंदवंश की मुख्य गाय को आमंत्रण देते हुए कान में कहते हैं – “कल प्रातः गोवर्धन पूजन के समय गोवर्धन को गूंदने को जल्दी पधारना.” गायों के कान में आमंत्रण देने की इस रीती को कानजगाई कहा जाता है.
प्रभु स्वयं गायों को आमंत्रण देते हैं ऐसा भाव है. इसके अलावा कानजगाई का
एक और विशिष्ट भाव है कि गाय के कान में इंद्र का वास होता है और प्रभु कानजगाई के द्वारा उनको कहते हैं कि – “हम श्री गिरिराजजी को कल अन्नकूट अरोगायेंगे, तुम जो चाहे कर लेना.” सभी पुष्टिमार्गीय मंदिरों में अन्नकूट के एक दिन पूर्व गायों की कानजगाई की जाती है.
सारस्वतकल्प में श्री ठाकुरजी ने जब श्री गिरिराजजी को अन्नकूट अरोगाया तब भी इसी प्रकार कानजगाई की थी.
श्री ठाकुरजी, नंदरायजी एवं सभी ग्वाल-बाल अपनी गायों को श्रृंगारित कर श्री गिरिराजजी के सम्मुख ले आये. श्रीनंदनंदन की आज्ञानुसार श्री गिरिराजजी को दूध की चपटिया (मटकी) का भोग रखा गया और बीड़ा अरोगाये गये.
श्री गर्गाचार्यजी ने नंदबाबा से गायों का पूजन कराया था. तब श्री ठाकुरजी और नंदबाबा ने एक-एक गाय के कान में अगले दिन गोवर्धन पूजन हेतु पधारने को आमंत्रण दिया.
इस प्रसंग पर अष्टसखाओं ने कई सुन्दर कीर्तन गाये हैं परन्तु समयाभाव के चलते उन सबका वर्णन यहाँ संभव नहीं है.
श्रीजी के शयन के दर्शन बाहर नहीं खुलते.
शयन समय श्री नवनीतप्रियाजी रतनचौक में हटड़ी में विराजित हो दर्शन देते हैं.
हटड़ी में विराजने का भाव कुछ इस प्रकार है कि नंदनंदन प्रभु बालक रूप में अपने पिता श्री नंदरायजी के संग हटड़ी (हाट अथवा वस्तु विक्रय की दुकान) में बिराजते हैं और तेजाना, विविध सूखे मेवा व मिठाई के खिलौना आदि विक्रय कर उससे एकत्र धनराशी से अगले दिन श्री गिरिराजजी को अन्नकूट का भोग अरोगाते हैं.
रात्रि लगभग 9.00 बजे तक दर्शन खुले रहते हैं और दर्शन उपरांत श्री नवनीतप्रियाजी श्रीजी में पधारकर संग विराजते हैं.
श्री गुसांईजी, उनके सभी सात लालजी, व तत्कालीन परचारक महाराज काका वल्लभजी के भाव से 9 आरती होती है.
श्री गुसांईजी व श्री गिरधरजी की आरती स्वयं श्री तिलकायत महाराज करते हैं.
अन्य गृहों के बालक यदि उपस्थित हों तो वे श्री तिलकायत से आज्ञा लेकर सम्बंधित गृह की आरती करते हैं और अन्य की उपस्थिति न होने पर स्वयं तिलकायत महाराज आरती करते हैं.
काका वल्लभजी की आरती श्रीजी के वर्तमान परचारक महाराज गौस्वामी चिरंजीवी श्री विशालबावा करते हैं.
आज श्रीजी में शयन पश्चात पोढावे के व मान के पद नहीं गाये जाते.
दिवाली की रात्रि शयन उपरांत श्रीजी व श्री नवनीतप्रियाजी प्रभु लीलात्मक भाव से गोपसखाओं, श्री स्वामिनीजी, सखीजनों सहित अरस-परस बैठ चौपड़ खेलते हैं.
अखण्ड दीप जलते हैं, चौपड़ खेलने की अति आकर्षक, सुन्दर भावात्मक साज-सज्जा की जाती है.
दीप इस प्रकार जलाये जाते हैं कि प्रभु के श्रीमुख पर उनकी चकाचौंध नहीं पड़े. इस भावात्मक साज-सज्जा को मंगला के पूर्व बड़ाकर (हटा) लिया जाता है.
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