By Vaishnav, For Vaishnav

Monday, 14 December 2020

शरणमार्गका मूल

शरणमार्गका मूल 

पांडवो और कौरवों के बीच युद्ध होना निश्चित हुवा, तब अर्जुन पांडवोंकी ओरसे और दुर्योधन कौरवोंकी ओरसे भगवान् के पास सहायता लेने गये। भगवद् भक्त अर्जुनने तो साक्षात् भगवान् को ही अपने पक्षमें मांग लिया; जबकि दुर्योधन तो भगवान् की सेनाको लेकर प्रसन्न हो गया। युद्धकी घड़ी आयी तब भी अर्जुनने अपने मार्गदर्शकके रूपमें भगवान् को ही रथ का चालक (सारथि) बनाया।

युद्धकी शुरुआत करनेके लिये दोनों पक्ष जब रणभेरी फूंकने लगे तब भगवान् ने अर्जुनके रथको युद्धके मैदानमें दोनों सेनाओंके बीच ला कर खड़ा कर दिया। सामनेके पक्षमें नजर डालनेपर अर्जुनको उसके काका, भाई, भतीजा, मामा इत्यादि सगे-संबंधी और गुरुजन वहां लड़नेके लिये खड़े दिखलायी दिये। अर्जुन बहादुर और शस्त्रविद्यामें निपुण था, सकल शास्त्रोंका जानकार था, फिरभी अपने स्वजनोंके साथ युद्ध करना पड़ेगा यह सोचकर उस समय उसके मनमें खलबली मच गयी। उसके पूरे शरीरमें झन्नाहट होने लगी। ऐसी विकट परिस्थितिमें उसे सच्चा मार्ग दिखा सके, ऐसा यदि कोई था तो वे थे एकमात्र भगवान् श्रीकृष्ण। अर्जुनने भगवान् के शरणमें जाकर बिनती की : 

हे श्रीकृष्ण! ऐसी विकट परिस्थितिमें मेरा मन स्थिर नहीं हो पाता है। धर्म-अधर्मका विवेक भी मैं कर नहीं पाता हूँ। मेरी समस्याका समाधान कर सके ऐसा आपके अलावा और कोई मुझे दिखलायी भी नहीं पड़ता। इसलिये में आपसे पूछ रहा हूँ। मेरेलिये जो कल्याणकारी हो वह मुझे कहो। में आपकी शरणमें हुं। मुझे उपदेश दो।

अर्जुनके इन वचनोंका विचार करनेपर अर्जुनमें शरणागतिके योग्य नि:साधनता, अनन्यता, विश्वास, अन्य उपाय करनेमें निरुत्साह और पूर्ण दीनता रूपी गुण आ गये थे यह स्पष्ट हो जाता है। अर्जुनने भगवान् की शरणागति स्वीकार कर ली तब उसकी प्रत्येक शंकाओंका भगवान् ने समाधान किया और अंतमें जीवमात्रके लिये कल्याणकारी ऐसे शरणमार्गका महान् उपदेश दिया :-

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच।।

अर्थ : (मेरे शरण आनेमें प्रतिबंध करनेवाले) सभी धर्मोंका त्याग करके मेरे अकेलेकी शरणमें तू आजा! मैं तुम्हे हर पापोंसे (अर्थात् मेरे शरणमें आते समय जितने भी विघ्न आयेंगे उनसे में तुम्हे) मुक्त कराउंगा; तू चिंता मत कर।

श्रीमहाप्रभुजी के द्वारा प्रवर्तित शरणमार्गका आधार भगवान् का यही उपदेश हैं।

छोटा बालक जैसे अकेला पड़ जानेपर घबरा कर दौड़ता हुवा अपनी माताके पास चला जाता है और ऐसे भयभीत बालकको माता अपनी गोदमें ले लेती है, वैसे ही हम भी यदि प्रभुपर अतूट विश्वास, नि:साधनता, दीनता और अनन्यता के साथ प्रभुकी शरणागति स्वीकार कर लें तो प्रभु हमें अवश्य स्वीकार लेेते हैं।

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