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Monday, 27 December 2021

व्रज – पौष कृष्ण नवमी

व्रज – पौष कृष्ण नवमी
Tuesday, 28 December 2021

श्रीवल्लभ नंदन वह फिरि आये।
वेद स्वरुप फेर वह लीला करत आप मन भाये।।१।।
वे फिर राज करत गोकुल में वोही रीत प्रकटाये।
वही श्रृंगार भोग छिन छिन में वह लीला पुनि गाये।।२।।
जे जसुमति को आनंद दीनो सो फिर व्रज में आये।
श्रीविट्ठल गिरधर पद पंकज गोविंद उर में लाये।।३।।

श्रीमद प्रभुचरण श्री विट्ठलनाथजी (श्री गुसांईजी) का प्राकट्योत्सव

आज पुष्टिमार्ग में बहुत विशिष्ट दिन है. पुष्टिमार्ग के आधार राग, भोग व श्रृंगार को अद्भुत भाव-भावना के अनुरूप नियमबद्ध करने वाले प्रभुचरण श्री विट्ठलनाथजी (श्री गुसांईजी) का आज प्राकट्योत्सव है.(विस्तुत विवरण अन्य पोस्ट में)

सभी वैष्णवों को प्रभुचरण श्री गुसांईजी के प्राकट्योत्सव की ख़ूबख़ूब बधाई

श्रीजी का सेवाक्रम – उत्सव होने के कारण श्रीजी मंदिर के सभी मुख्य द्वारों की देहरी (देहलीज) को पूजन कर हल्दी से लीपी जाती हैं एवं आशापाल की सूत की डोरी की वंदनमाल बाँधी जाती हैं.

आज मन्दिर के प्रत्येक द्वार के ऊपर रंगोली भी मांडी जाती है. हल्दी को गला कर द्वार के ऊपर लीपी जाती है एवं सूखने के पश्चात उसके ऊपर गुलाल, अबीर एवं कुंकुम आदि से कलात्मक रूप से कमल, पुष्प-लता, स्वास्तिक, चरण-चिन्ह आदि का चित्रांकन किया जाता है और अक्षत छांटते हैं.

निजमन्दिर के सभी साज जडाऊ आते हैं. गादी व खंड आदि पर मखमल का साज आता है. गेंद, चौगन, दीवला आदि सभी सोने के आते हैं.  

सभी समय झारीजी में यमुनाजल भरा जाता है. चारों समय (मंगला, राजभोग, संध्या-आरती व शयन) में आरती थाली में की जाती है. 
दिनभर बधाई, पलना एवं ढाढ़ी के कीर्तन गाये जाते हैं.

श्री गुसांईजी का प्राकट्य स्वयं प्रभु का प्राकट्य है. श्रीजी ने स्वयं आनंद से यह उत्सव मनाया है एवं कुंभनदासजी व रामदासजी को आज्ञा कर जलेबी टूक की सामग्री मांग कर अरोगी है. 
इसी कारण आज श्रीजी को मंगला भोग से शयन भोग तक प्रत्येक भोग में विशेष रूप से जलेबी टूक की सामग्री अरोगायी जाती है और आज के उत्सव को जलेबी उत्सव भी कहा जाता है. 

श्रीजी को नियम से केवल जलेबी टूक ही अरोगाये जाते हैं अर्थात गोल जलेबी के घेरा की सामग्री कभी नहीं अरोगायी जाती. विविध मनोरथों पर बाहरी मनोरथियों द्वारा घेरा की सामग्री अरोगायी जाती है.

सभी वैष्णवों को भी आज अपने सेव्य स्वरूपों को यथाशक्ति जलेबी की सामग्री सिद्धकर अंगीकार करानी चाहिए.

मंगला दर्शन पश्चात प्रभु को चन्दन, आवंला, उबटन एवं फुलेल (सुगन्धित तेल) से अभ्यंग (स्नान) कराया जाता है.

आज निज मन्दिर में विराजित श्री महाप्रभुजी के पादुकाजी का भी अभ्यंग व श्रृंगार किया जाता है.  

श्रीजी को आज नियम के केसरी साटन के बिना किनारी का सूथन, चोली, चाकदार वागा एवं श्रीमस्तक पर जड़ाव हीरे व पन्ने की केसरी कुल्हे के ऊपर पांच मोरपंख की चंद्रिका का भारी में भारी श्रृंगार धराया जाता है जिसका विस्तृत विवरण नीचे दिया है.

श्रीजी को कुछ इसी प्रकार के भारी आभरण जन्माष्टमी के दिन भी धराये जाते हैं. भारी श्रृंगार व बहुत अधिक मात्रा में जलेबी के भोग के कारण ही आज सेवाक्रम जल्दी प्रारंभ किया जाता है.

श्रृंगार दर्शन में श्रीजी के मुख्य पंड्याजी प्रभु के सम्मुख वर्षफल पढ़ते हैं.

श्रीजी को गोपीवल्लभ (ग्वाल) भोग में विशेष रूप से केशरयुक्त जलेबी के टूक, दूधघर में सिद्ध की गयी केसरयुक्त बासोंदी की हांडी व शाकघर में सिद्ध चार विविध फलों के मीठा अरोगाये जाते हैं. 

राजभोग में अनसखड़ी में दाख (किशमिश) का रायता, सखड़ी में केशरयुक्त पेठा, मीठी सेव व पांचभात (मेवा-भात, दही-भात, राई-भात, श्रीखंड-भात और वड़ी-भात) आरोगाये जाते हैं. 
प्रभु सम्मुख 25 पान के बीड़ा सिकोरी में अरोगाये जाते हैं.

राजभोग समय उत्सव भोग रखे जाते हैं जिनमें प्रभु को केशरयुक्त जलेबी टूक, दूधघर में सिद्ध मावे के मेवायुक्त पेड़ा-बरफी, दूधपूड़ी (मलाई-पूड़ी), बासोंदी, जीरा मिश्रित दही, केसरी-सफेद मावे की गुंजिया, श्रीखंड-वड़ी का डबरा, घी में तला हुआ बीज-चालनी का सूखा मेवा, विविध प्रकार के संदाना (आचार) के बटेरा, विविध प्रकार के फल, शीतल आदि अरोगाये जाते हैं.

इसी प्रकार श्रीजी के निज मंदिर में विराजित श्री महाप्रभुजी की गादी को भी एक थाल में यही सब सामग्रियां भोग रखी जाती हैं. 

राजभोग समय प्रभु को बड़ी आरसी (उस्ताजी वाली) दिखायी जाती है, तिलक किया जाता है, थाली में चून (आटे) का बड़ा दीपक बनाकर आरती की जाती है एवं राई-लोन-न्यौछावर किये जाते हैं. 

कल की post में भी मैंने बताया था कि विगत रात्रि से प्रतिदिन श्रीजी को शयन के पश्चात अनोसर भोग में एवं आज से प्रतिदिन राजभोग के अनोसर में शाकघर में सिद्ध सौभाग्य सूंठ अरोगायी जाती है.

केशर, कस्तूरी, सौंठ, अम्बर, बरास, जाविन्त्री, जायफल, स्वर्ण वर्क, विविध सूखे मेवों, घी व मावे सहित 29 मसालों से निर्मित सौभाग्य-सूंठ के बारे में कहा जाता है कि अत्यन्त सौभाग्यशाली व्यक्ति ही इसे खा सकता है.

आयुर्वेद में भी शीत एवं वात जन्य रोगों में इसके औषधीय गुणों का वर्णन किया गया है अतः विभिन्न शीत एवं वात जन्य रोगों, दमा, जोड़ों के दर्द में भी इसका प्रयोग किया जाता है.

राजभोग दर्शन – 

तिलक होवे तब का कीर्तन – (राग : सारंग)

आज वधाई को दिन नीको l
नंदघरनी जसुमति जायौ है लाल भामतो जीकौ ll 1 ll
पांच शब्द बाजे बाजत घरघरतें आयो टीको l
मंगल कलश लीये व्रज सुंदरी ग्वाल बनावत छीको ll 2 ll
देत असीस सकल गोपीजन चिरजीयो कोटि वरीसो l
‘परमानंददास’को ठाकुर गोप भेष जगदीशो ll 3 ll

साज - श्रीजी में आज लाल रंग की मखमल की, सुनहरी ज़री की तुईलैस की किनारी के हांशिया से सुसज्जित पिछवाई धरायी जाती है.
यही पिछवाई जन्माष्टमी पर आती है. लाल मखमल के गादी, खंड आदि व जड़ाव के तकिया धरे जाते हैं (गादी एवं तकिया पर सफेद खोल नहीं चढ़ायी जाती). चरणचौकी पर सफेद बिछावट की जाती है एवं प्रभु के स्वरुप के सम्मुख लाल रंग की तेह बिछाई जाती है.

वस्त्र – श्रीजी को आज सुन्दर केसरी साटन के वस्त्र - बिना किनारी का सूथन, चोली, अडतू किये चाकदार वागा एवं टंकमा हीरा के मोजाजी धराये जाते हैं. ठाड़े वस्त्र मेघश्याम रंग के धराये जाते हैं.

श्रृंगार – श्रीजी को आज वनमाला का (चरणारविन्द तक) तीन जोड़ी का भारी श्रृंगार धराया जाता है. मिलवा-हीरा, मोती, माणक, पन्ना तथा जड़ाव स्वर्ण के सर्व आभरण धराये जाते हैं. 
सर्व साज, वस्त्र, श्रृंगार आदि जन्माष्टमी की भांति ही होते हैं. श्रीमस्तक पर जड़ाव हीरा एवं पन्ना जड़ित स्वर्ण की केसरी कुल्हे के ऊपर सिरपैंच, पांच मोरपंख की चन्द्रिका की जोड़ एवं बायीं ओर शीशफूल धराये जाते हैं. 
श्रीकर्ण में मकराकृति कुंडल धराये जाते हैं. त्रवल, टोडर दोनों धराये जाते हैं. दो हालरा व बघनखा भी धराये जाते हैं. 
बायीं ओर हीरा की चोटी (शिखा) धरायी जाती है. 
पीठिका के ऊपर प्राचीन जड़ाव स्वर्ण का चौखटा धराया जाता है. 
कली, कस्तूरी आदि सभी माला धरायी जाती हैं. श्वेत एवं पीले पुष्पों की दो सुन्दर थागवाली मालाजी धरायी जाती है.
 श्रीहस्त में हीरा के वेणुजी एवं दो वेत्रजी धराये जाते हैं.पट उत्सव का एवं गोटी जड़ाऊ की आती हैं.
आरसी जड़ाऊ एवं सोना की डाँडी की दिखाई जाती हैं.

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