व्रज - कार्तिक शुक्ल एकादशी
Thursday, 23 November 2023
देव प्रबोधिनी एकादशी व्रत (देव-दीवाली)
जागे जगजीवन जगनायक।
कियो प्रबोध देवगन जब ही
उठे जगत सुखदायक॥
आज एकादशी देवदिवारी
तजो निद्रा उठो गिरिधारी।
सकल विश्व को प्रबोध कीजै
जागो परम चतुर बनवारी॥
नंद को लाल उठ्यो जब सोय।
देखि मुखारविंद की शोभा
कहो काके मन धीरज होय॥
(शृंगार दर्शन समय 6.45)
देव-प्रबोधिनी मंडप
श्रीजी में देव प्रबोधन शुभ भद्रारहित काल के अनुसार प्रातः मंगला उपरान्त अथवा उत्थापन उपरान्त संध्या समय किया जाता है.
इस वर्ष गुरुवार, 23 नवम्बर 2023 की प्रातः 10 बजकर 02 मिनिट से रात्रि 9 बजकर 1 मिनिट तक भद्राकाल होने से देव प्रबोधन आज प्रातः श्रृंगार समय होगा.
इस वर्ष देवोत्थापन प्रातः समय होगा अतः आज श्रीजी के मंगला के दर्शन वैष्णवों के लिए बाहर नहीं खोले जायेंगे क्योंकि डोलतिबारी में देवोत्थापन का मंडप बनाया जा रहा होगा.
यदि देवोत्थापन सायंकाल का हो तो उत्थापन के दर्शन भीतर होते हैं.
डोलतिबारी के प्रथम भाग में सफेद खड़ी से मंडप बनाया जाता है एवं इसमें अनेक सुन्दर रंग भरे जाते हैं. मंडप मांडने की सेवा श्री तिलकायत परिवार के बहूजी, बेटीजी (यदि उपस्थित हों) एवं भीतर के सेवकों के परिवार की महिलाऐं करती हैं. पहले सफेद खड़ी से सीमांकन किया जाता है एवं उनमें विविध सुन्दर रंग भरे जाते हैं.
मंडप की चारों दिशाओं में चार आयुध (शंख, चक्र, गदा एवं पद्म) एवं चारों ओर पुष्प लताएँ, तोरण आदि बनाए जाते हैं. मंडप के मध्य एक चौक एवं इसके चारों ओर आठ चौक बनाये जाते हैं. यह नौ चौक का मंडप चार रेखाओं से चित्रित किया जाता है. इसके पश्चात सभी नौ चौकों में स्वास्तिक बनाये जाते हैं. इस सुन्दर सुसज्जित मंडप के ऊपर सोलह हरे पत्ते वाले बड़े गन्नों के 4 स्तंभों से मंडप बनाया जाता है अर्थात इस मंडप को बनाने में कुल चौंसठ बड़े गन्नों का उपयोग किया जाता है.
चार-चार बड़े गन्नों को इकठ्ठा कर तीन जगहों से लाल डोरी बाँध ऐसे चार गट्ठरों से एक स्तम्भ बनता है. इन चारों स्तंभों को डोलतिबारी में इस प्रकार आपस में बाँधा जाता है कि उनके मध्य से प्रभु के दर्शन हों.
मंडप की चारों ओर आठ दीप (प्रत्येक कौने में एक-एक व चार दीपक पीछे) प्रज्जवलित किये जाते हैं. इस उपरांत कई दीपकों दीपमाला बनाई जाती है.
मंडप के चारों ओर बांस की चार टोकरियों में गन्ने के टुकड़े, शकरकंद, बेर, सिंघाड़ा, बैंगन, भाजी आदि भरकर रखे जाते हैं. तत्पश्चात झालर, घंटा व शंखनाद के साथ श्री बालकृष्णलालजी (श्रीजी के संग विराजित स्वरुप) चरणचौकी की गादी पर विराजित किये जाते हैं.
तीन बार निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण कर देवोत्थापन की विधि की जाती है.
ऊतिष्ठोष्ठ गोविन्द त्याज निन्द्राम जगत्पते l
त्वय्युत्थिते जगन्नाथ ह्युत्थितं भुवन त्रयम् ll 1 ll
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम l
ऊत्थिते चेष्टते सर्वमुतिष्ठोतिष्ठ माधव ll 2 ll
इसके पश्चात श्री बालकृष्णलालजी को तिलक कर, संकल्प कर और तुलसी समर्पित कर दूध, दही, मिश्री के बूरे, शहद, एवं घी से पहले पंचामृत स्नान कराया जाता है एवं तब शुद्ध जल से स्नान कराया जाता है. तत्पश्चात चन्दन, आवंला, एवं फुलेल (सुगन्धित तेल) से अभ्यंग (स्नान) कराया जाता है एवं दग्गल धरायी जाती है.
उपस्थित सेवक मंडप की चार परिक्रमा करते हैं और श्री बालकृष्णलालजी को भीतर पधराकर मंडप बड़ा कर लिया जाता है.
ठाकुरजी को भीतर पधराकर थाली में आरती की जाती है और श्रीजी के दर्शन होते हैं.
दर्शन उपरांत उत्सव भोग धरे जाते हैं जिसमें प्रभु को मीठी बूंदी, खस्ता शक्करपारा, दूधघर में सिद्ध मावे के पेड़ा-बरफी, दूधपूड़ी, बासोंदी, जीरा मिश्रित दही, तले हुए नमकीन बीज-चालनी के सूखे मेवा, विविध प्रकार के संदाना (आचार) के बटेरा, विविध प्रकार के फल आदि अरोगाये जाते हैं.
श्रीजी के अलावा अन्य सभी निधि स्वरूपों एवं हवेलियों में आज शयन पश्चात अनोसर नहीं होते, रात्रि जागरण होता है एवं द्वादशी का राजभोग तक का सेवाक्रम लगभग पांच बजे तक पूर्ण कर लिया जाता है.
कई मंदिरों में चार जागरण भोग भी रखे जाते हैं परन्तु श्रीजी मंदिर में गौलोक लीला होने से जागरण भी नहीं होता व चार भोग नहीं रखे जाते.
आषाढ़ शुक्ल एकादशी को तुलसी के बीज बोये जाते हैं एवं उनकी अभिवृद्धि और रक्षा हेतु प्रयत्न किये जाते हैं. कन्यावत उनका पालन कर आज कार्तिक शुक्ल एकादशी को उनका विवाह प्रभु के साथ किया जाता है. तुलसी पूजन एवं तुलसी विवाह का महत्व पुराणों में कई स्थानों पर बताया गया है.
आज देवोत्थापन मंडप की भांति ही तुलसी विवाह का मंडप भी मांडा जाता है. तुलसी महारानी का भी गन्ने का मंडप बनाया जाता है एवं पूजन किया जाता है. प्रभु को तुलसी अत्यंत प्रिय होने के कारण विष्णु समान उनका पूजन किया जाता है. ‘धन धन माता तुलसी’ कीर्तन गाया जाता है.
यह पूजन श्रीजी की अन्नकूट की रसोई में होता है.
अन्नकूट की रसोई में तुलसी विवाह होता है.
कमलचोक में रखे गए तुलसीजी को उस्ताजी अन्नकूट की रसोई में पधराते है.
तुलसीजी के चारों तरफ़ दीपक सज़ाये जाते हैं.
श्रीनाथजी के मुखिया भितरिया अन्नकूट की रसोई में जाकर तुलसीजी की परिक्रमा करते हैं.
तिलकायत अगर उपस्थित हो तो वे अन्यथा श्रीनाथजी के मुखियाजी तुलसीजी को चुदंड़ी ओड़ा कर तुलसी विवाह संपन कराते हैं.
राग--कान्हरो
धनधन माता तुलसी बडी । नारायण के चरण परी ।।१।।
जो तुलसीकी सेवा कर है । कोटि पाप खनमे में परि हर है ।।२।।
जो तुलसी के फेरा देत । सहज हि जन्म सुफल कर लेत ।।३।।
दान पुण्य मे तुलसी होय कोटि पुन्य फल पावे सोय ।।४।।
जा घर तुलसी करे निवास । ता घर सदा विष्णुको वास ।।५।।
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