व्रज – आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी
Wednesday, 07 June 2023
बसरा के मोतियों से गूंथा हुआ आड़बंद एवं श्रीमस्तक पर छज्जेदार पाग और मोती के दोहरा क़तरा के श्रृंगार, संध्या-आरती के उपरांत ऊष्णकाल का तृतीय शीतल जल स्नान
शृंगार दर्शन –
कीर्तन – (राग : बिलावल)
देखे री हरि नंगमनंगा l
जलसुत भूषन अंग विराजत बसन हीन छबि उठि तरंगा ll 1 ll
अंग अंग प्रति अमित माधुरी निरखि लज्जित रति कोटि अनंगा l
किलकत दधिसुत मुख लेपन करि ‘सूर’ हसत ब्रज युवतिन संगा ll 2 ll
जिन तिथियों के लिए प्रभु की सेवा प्रणालिका में कोई वस्त्र, श्रृंगार निर्धारित नहीं होते उन तिथियों में प्रभु को ऐच्छिक वस्त्र व श्रृंगार धराये जाते हैं.
ऐच्छिक वस्त्र, श्रृंगार प्रभु श्री गोवर्धनधरण की इच्छा, ऋतु की अनुकूलता, ऐच्छिक श्रृंगारों की उपलब्धता, पूज्य श्री तिलकायत महाराजश्री की आज्ञा एवं प्रभु के तत्सुख की भावना से मुखियाजी के स्व-विवेक के आधार पर धराये जाते हैं.
ऐच्छिक वस्त्र, श्रृंगार के रूप में आज श्रीजी को आज एक विशिष्ट श्रृंगार धराया जायेगा,
इस श्रृंगार को धराये जाने का दिन नियत नहीं परन्तु उष्णकाल के किसी खाली दिन धराया अवश्य जाता है l
बसरा के मोतियों से गूंथा हुआ आड़बंद एवं श्रीमस्तक पर छज्जेदार पाग और मोती के दोहरा क़तरा का श्रृंगार धराया जायेगा.
राजभोग दर्शन –
कीर्तन – (राग : सारंग)
सूर आयो सिर पर छाया आई पायनतर
पंथी सब झूक रहे देख छांह गहरी l
धंधीजन धंध छांड रहेरी धूपन के लिये
पशु-पंछी जीव जंतु चिरिया चूप रही री ll 1 ll
व्रज के सुकुमार लोग दे दे किंवार सोये
उपवन की ब्यार तामें सुख क्यों न लहेरी l
‘सूर’ अलबेली चल काहेको डरात है
महा की मधरात जैसी जेठ की दुपहरी ll 2 ll
साज – आज श्रीजी में श्वेत रंग की (Net) जाली की पिछवाई धरायी जाती है. गादी, तकिया एवं चरणचौकी पर सफ़ेद बिछावट की जाती है.
वस्त्र – आज श्रीजी को बसरा के मोतियों से गूंथा हुआ आड़बंद धराया जाता है.
श्रृंगार – आज प्रभु को छोटा (कमर तक) ऊष्णकालीन हल्का श्रृंगार धराया जाता है.
सर्व आभरण मोती के धराये जाते हैं.
श्रीमस्तक पर बसरा के मोतियों की छज्जेदार पाग के ऊपर सिरपैंच, लूम, मोती का दोहरा कतरा एवं बायीं ओर शीशफूल धराये जाते हैं.
श्रीकर्ण में एक जोड़ी मोती के कर्णफूल धराये जाते हैं. श्वेत पुष्पों की दो मालाएँ हमेल की भांति धरायी जाती हैं.
श्रीहस्त में तीन कमल की कमलछड़ी,मोती के वेणुजी एवं एक वेत्रजी धराये जाते हैं.
पट ऊष्णकाल का व गोटी हकीक की आती है.
ऊष्णकाल का द्वितीय शीतल जल स्नान
आज श्रीजी में संध्या-आरती के उपरांत ऊष्णकाल का तृतीय शीतल जल स्नान होगा. ऊष्णकाल के ज्येष्ठ और आषाढ़ मास में श्रीजी में नियम के चार अभ्यंग स्नान और तीन शीतल जल स्नान होते हैं. यह सातो स्नान ऊष्ण से श्रमित प्रभु के सुखार्थ होते हैं.
अभ्यंग स्नान प्रातः मंगला उपरांत और शीतल जल स्नान संध्या-आरती के उपरांत होते हैं.
अभ्यंग स्नान में प्रभु को चंदन, आवंला एवं फुलेल (सुगन्धित तेल) से अभ्यंग (स्नान) कराया जाता है जबकि शीतल स्नान में प्रभु को बरास और गुलाब जल मिश्रित सुगन्धित शीतल जल से स्नान कराया जाता है.
जिस दिन शीतल स्नान हो उस दिन शयनभोग की सखड़ी में विशेष रूप से विविध प्रकार के मीठा-रोटी, दहीभात, घुला हुआ सतुवा आदि अरोगाये जाते हैं.
सूरदासजी नेत्रहीन (दृष्टि से दिव्यांग) थे परन्तु प्रतिदिन मन की दिव्य दृष्टि से प्रभु के दर्शन कर अपने कीर्तनों में प्रभु के श्रृंगार का वर्णन करते थे और इसे प्रभु की कृपा कहते थे.
एक बार श्री गुसांईजी गोपालपुर पधारे अतः सूरदासजी ने भी गोपालपुर जाने का विचार किया. तब श्री गिरधरजी आदि बालकों ने उन्हें दो दिन और रुककर श्री नवनीतप्रियाजी को कीर्तन सुनाने को कहा अतः सूरदासजी गोकुल में ही रुक गये.
श्री गिरधरजी से तीनों बालकों (श्री गोविन्दरायजी, श्री बालकृष्णजी और श्री गोकुलनाथजी) ने संशयवश कहा कि हम श्री नवनीतप्रियाजी को जो श्रृंगार धराते हैं, सूरदास जी वैसे ही वस्त्र आभूषणों का वर्णन करते हैं.
आज कुछ ऐसा अद्भुत अनोखा श्रृंगार करें कि सूरदासजी पहचान ही नहीं पायें. तब श्री गिरधरजी ने कहा –“सूरदासजी भगवदीय है और इनके हृदय में स्वरूपानंद का अनुभव है. तुम जो भी श्रृंगार करोगे वो उसी भाव का वर्णन अपने पदों में करेंगे अतः भगवदीय की परीक्षा नहीं करनी चाहिए.”
तब तीनों बालकों ने कहा –“फिर भी हमारा मन है अतः हम अपना संशय दूर करने के लिए कल ठाकुरजी को अद्भुत श्रृंगार धरायेंगे.”
अगले दिन प्रातः तीनों बालक श्री नवनीतप्रियाजी के मंदिर में पधारे और सेवा में नहाये, श्री ठाकुरजी को जगाकर भोग धरे. मंगलभोग सरे उपरांत ठाकुरजी को नहला कर श्रृंगार धराने लगे.
ऊष्णकाल के दिन थे और कुछ अलग भी करना था अतः ठाकुरजी को वस्त्र ही नहीं धराये.
केवल मोती की दो लड़ श्रीमस्तक पर, मोती के बाजूबंद, कटि किंकिणी नुपूर, हार आदि सभी मोती के, तिलक, नकवेसर, कर्णफूल ही धराये.
सूरदासजी जगमोहन में बैठे थे और उनके हृदय में यह अनुभव हुआ तब उन्होंने विचार किया कि आज तो श्री नवनीतप्रियाजी ने अद्भुत श्रृंगार धराया है जो कि कभी नहीं सुना, नहीं देखा.
केवल मोती ही धराये हैं और वस्त्र तो है ही नहीं. मुझे भी इस अद्भुत श्रृंगार के लिए कुछ अद्भुत कीर्तन गाना चाहिए. जब श्रृंगार दर्शन खुले और सूरदासजी को कीर्तन हेतु बुलाया गया तो उन्होंने राग-बिलावल में यह सुन्दर कीर्तन गाया.
देखे री हरि नंगमनंगा l
जलसुत भूषन अंग विराजत बसन हीन छबि उठि तरंगा ll 1 ll
अंग अंग प्रति अमित माधुरी निरखि लज्जित रति कोटि अनंगा l
किलकत दधिसुत मुख लेपन करि ‘सूर’ हसत ब्रज युवतिन संगा ll 2 ll
यह सुनकर श्री गिरधरजी सहित वहां उपस्थित सभी बालक अत्यंत प्रसन्न हुए और बोले –“सूरदासजी, आज आपने ऐसा कीर्तन क्यों गाया ?”
तब सूरदासजी ने विनम्रता से कहा –“जैसा अद्भुत श्रृंगार आपने किया है वैसा ही अद्भुत कीर्तन मैंने रचित कर गाया है.” सभी बालक सूरदासजी पर बहुत प्रसन्न हुए और कुछ दिन पश्चात श्री गिरधरजी सूरदास जी को लेकर गोपालपुर पधारे और श्री गुसांईजी को उस अद्भुत घटना का सविस्तार विवरण दिया.
तब श्री गुसांईजी ने श्री गिरधरजी से कहा –“सूरदासजी पर संशय नहीं करना चाहिए था.
ये तो पुष्टिमार्ग के जहाज हैं अतः इन्हें भगवदलीला का अनुभव आठों पहर होता रहता है और इसीलिए सूरदासजी श्री महाप्रभुजी के अत्यंत कृपापात्र भगवदीय थे.”
इसी प्रसंग के अनुसंधान में आज श्रीजी को बसरा के मोतियों से गूंथा हुआ आड़बंद धराया जाता है, श्रीमस्तक पर बसरा के मोतियों की पाग धरायी जाती है और कोई वस्त्र नहीं धराये जाते यहाँ तक कि आज प्रभु को आड़बंद के भीतर तनिया भी नेट का धराया जाता हैं.